शरीर
हजारों लीटर पानी,
हजारों लीटर पानी,
उड़ेला गया बेहिसाब,
महंगे साबुनों से पखारा,
कई प्रकार के तेल,
इत्र छिड़के गये,
धूल,मिटटी से दूर,
सूरज से छुपाये रखा,
कभी ऐसा दिन नही,
जब सँवारा न गया
हो यह बदन,
घिस घिस कर इसको
उज्ज्वल कर लिया,
मिटटी के ढेले को,
कोमलता दे दी गयी,
विभिन्न परिधानों से,
सुसज्जित कर दिया,
पर यह क्या?
चन्द दिनों बाद ही,
फूंक दिया गया,
लकड़ी,ऊपलो के साथ
वर्षो लगे संभालने में,
जिसे वह एकपल में,
बदल गया,
दो मुठ्ठी राख में....
✍🏽नवीन श्रोत्रिय "उत्कर्ष"
11/18/16, 4:20 PM
2 Comments
what a wonderful poem.
ReplyDeleteHow sweet and lovly poem
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