छंद : मत्तग्यन्द सवैया
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जोगिन एक मिली जिसने चित,
चैन चुराय  लिया चुप  मेरा ।

नैन  बसी  वह   नित्य  सतावत,
सोमत  जागत डारिहु  घेरा ।

धाम कहाँ उसका  नहिं  जानत,
ग्राम, पुरा, बृज माहिंउ हेरा ।

कौन  उपाय करूँ  जिससे वह,
मित्र  करे  अब आकर भेरा ।।

✍नवीन श्रोत्रिय “उत्कर्ष”
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