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अभिव्यक्ति के नाम पर,
परोसी जा रही है,
फूहड़ता,अब
बदल चुका है,
वह संकल्प,
जो लिया था कभी,
सभ्य समाज,
और उसकी पुष्टता का,
कभी दीपक बन,
उजाला करने के,
संजोये थे ख्वाब,
मगर,
लोकप्रियता की
दीमक,
चट कर रही है,
धीरे - धीरे,
देश की संस्कृति,
सभ्यता,और सम्मान,
फूहड़ता पैर पसार,
नित्य ही शर्मसार
कर रही रिश्तों को,
यह अभिव्यक्ति,
कभी वरदान थी,
जो अब अभिशाप
बन कर मानसिक,
रोगो का सृजन
कर रही है,
ऐसी आज़ादी को,
आखिर मैं,
भली कहूँ या भद्दी ?
: नवीन श्रोत्रिय “उत्कर्ष”
श्रोत्रिय निवास बयाना
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