छन्द : पञ्चचामर 

विधान- 【 121 212 121 212 121 2】चार चरण,क्रमशः दो-दो चरण समतुकांत

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उठो  !  बढ़ो,  रुको  नहीं, करो,  मरो,  डरो नहीं
बिना      करे   तरे   नहीं,  बिना  करे नहीं कहीं
पुकारती    तुम्हे    धरा, दिखा शरीर शक्ति को
अप्राप्य प्राप्त हो,तभी,“नवीन” भोग भुक्ति को

----- नवीन श्रोत्रिय “उत्कर्ष”

नहीं    कभी    अधीर हों, करें  विचार  काज पे
लिये    न  हो अशुद्धियां, लगे  न दाग आज पे
अशुध्द    भाव हो नहीं, पवित्र चित्त  जान लें
मिले    धरा  उसे जिसे , “नवीन”आप ठान लें
 नवीन श्रोत्रिय “उत्कर्ष”


बढ़े    चलो,  गढ़े  चलो, चढ़ो सुकीर्ति सीढ़ियाँ
लिखो  वही, गुने   सभी, पढें   नवीन  पीढ़ियाँ 
कभी  रखो  न  चित्त में,विकार  बैर लोभ का 
यही   प्रधान  तत्व तो, रहा  सजीव  क्षोभ का
नवीन श्रोत्रिय “उत्कर्ष”

उठा   कृपाण,  वीर   जो, अधर्म   देह चीर दो 
रहे     मनुष्य  सृष्टि  पे, यथार्थ ना अधीर हो 
धरा   प्रतीक   पे  करें,  गुमान  और  देश भी 
कुमार्ग   पे  चलो   नहीं, कहें   यही  उमेश भी
नवीन श्रोत्रिय “उत्कर्ष”

पञ्चचामर  छन्द