छंद : आल्हा/वीर
शैली : व्यंग्य
अलंकरण : उपमा,अतिशयोक्ति
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चींटी एक चढ़ी पर्वत पे,
गुस्से से होकर के लाल ।
हाथी आज नही बच पावे,
बनके आई मानो काल ।
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कुल मेटू तेरे मैं सारो,
कोऊ आज नही बच पाय ।
बहुत सितम झेले है अब तक,
आज सभी लूंगी भरपाय ।।
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कुल का नाश किया मेरे का,
रौंद पैर के नीचे हाय ।
सुन निर्मम हत्यारे द्रोही,
कोई आज बचा नही पाय ।।
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भर हुँकार गर्ज रही चींटी,
सुनलो श्रोता ध्यान लगाय ।
हाथी खड़ा पेड़ के नीचे,
यह सुनकर धीमे मुस्काय ।।
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हाथी की मुस्कान देख के,
चींटी को आया बहु क्रोध ।
चींटी बोली सुन अज्ञानी,
मेरी ताकत का नहि बोध ।।
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देख अकेली तुझको मारूँ,
बिना खड्ग बिन कोऊ ढाल ।
तडप तडप के प्रानन त्यागे,
ऐसा कर दूं तेरा हाल ।।
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इतना कहकर चींटी लपकी,
हाथी ने लटकाई सूँड़ ।
चींटी बन गई आज दामिनी,
हाथी का भन्नाया मूँड़ ।।
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धीरे धीरे बढ़ी मारने,
हाथी मारे फिर चिंघाड़ ।
थर थर कांपे वह बलशाली,
लेने लगा प्रभो की आड़ ।।
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मोय बचाओ गिरधर नागर,
दीनबन्धु करुणा अवतार ।
आज उबारो संकट भारी,
तुम्हे दीन यह रहा पुकार ।।
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चींटी बोली सुन हत्यारे,
कोउ पाप संगाती नाय ।
कर्म करे जैसे धरती पे,
वैसा ही फल लेगा पाय ।।
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दुश्मन को छोटा मत आंको,
दुश्मन भारी नाहक जान ।
आज इसी गलती के कारण,
त्यागेगा तू अपने प्राण ।।
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क्रोध भरी चींटी भी भारी,
कहता यह सारा संसार ।
तनिक छुआ नही उसने हाथी,
लेकिन फिर भी डाला मार ।।
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✍नवीन श्रोत्रिय “उत्कर्ष”
श्रोत्रिय निवास बयाना
+91 84 4008-4006
2 Comments
waah waah waah bahut badiya
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार दीप जी
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