छंद : मत्तग्यन्द सवैया
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(1)
(1)
चोर बसे चहुँ ओर बसे,पर नाम करें रचना कर चोरी ।
सूरत से वह साधक है,पहचान परे नहि सूरत भोरी ।
बात बने लिखते वह तो,मति मारि गयी बिनकीउ निगोरी ।
कोशिश ते तर जामत है,मति कोउ उन्हें यह दे फिर थोरी ।
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(2)
(2)
द्वार खड़ो कर जोड़ सुनो,विकराल हुओ तम मैं भिरमाऊं ।
दूर करो मति से तम को,फिर ज्ञान प्रकाश मिले सुख पाऊँ ।
वंदन हेतु लिखूं कुछ मै,अभिनंदन गीत लिखूं फिर गाऊँ ।
मात करूँ अरदास यही,नित प्रीत करूँ पर प्रीत जगाऊँ ।
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(3)
(3)
देख गरीब मजाक करो नहि,हाल बनो किस कारण जानो ।
मानुष दौलत पास कितेकहु,दौलत देख नही इतरानो ।
ये तन मानुष को मिलयो,बस एक यही अब धर्म निभानो ।
नेह सुधा बरसा धरती पर,सीख सिखा सबको हरषानो ।
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(4)
(4)
काल घड़ी सब ही बदले अबनायक भ्रष्ट बने अधिकारी ।
भीतर भीतर घात करें मनमीत रहे न रही अब यारी ।
बात करे सब स्वारथ की तब,बात रही नहि मानस वारी ।
पूत – पिता मतभेद परो अब,दाम बने जग के गिरधारी ।।
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(5)
(5)
देखत रूप अनूप मनोहर,मोहित मोहन पे हुइ गोरी ।
श्यामल श्याम की’सूरत पे,दिल हार गई वृषभानु किशोरी ।
नींदहुँ आवत नाहि उसे अब,नैनन में वु समाय गयो री ।
बैरनियां बन रात सतावत,मारत है अब याद निगोरी ।
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(6)
(6)
रूपवती वह चंद्रमुखी,लब लाल रचे लट नागिन कारी ।
नैन कटार गुलाबिहु गाल,ललाट लगी टिकुली बहु प्यारी ।
कानन में लटके झुमका,अरु नाक सजी नथुनी मतबारी ।
रूप मनोहर देखत ही,सुधि भूल गये खुद ही बनवारी ।
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(7)
(7)
दीप जले अँधियार मिटा,अगयान मिटा जब ज्ञान पसारा ।
प्रीत झरी जब गीत बना,मनमीत बही जब नेह की’ धारा ।
पर्व बना खुशियाँ बरसी,तब रीत बनी चल लीकहु यारा ।
धीरज कूँ धर जीत मिली,अरु ध्यान धरे उतरा भव पारा ।।
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(8)
(8)
शौकिन को यह दौर चलो,फिर शौकन पे धनधान लुटायो ।
भ्रात रहो नहि भ्रात यहाँ,सब गैरन में अपनापन पायो ।
पूत पिता मतभेद हुओ,अब लालच है उर माहि समायो ।
टूटत है परिवार यहाँ,जब आप छलो,अपनों बिखरायो ।।
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(9)
(9)
दर्द उठो मन कम्पित है,तन होत यहाँ नित मान उतारी ।
छोड़ दियो चित चिन्तन कूँ,तज लीक बने नव रीतहु धारी ।
त्याग करो तप को फिर भी,धर रूप बने वह लोग पुजारी ।
स्वाद लगो धन को बिन कूँ,अब धर्म तजे सब ही धनुधारी ।
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(10)
(10)
जान धरे कर ऊपर कूँ,अरु जीवन जोखिम में धर दीनो ।
छोड़ सभी परिवार बसे,घर बार्डर कूँ फिर मानहु लीनो ।
वीर डरें कब संकट ते,डर के यह जीवन है नहि जीनो ।
जान बड़ी नहि मान बड़ो,कह बात निछावर जीवन कीनो ।
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(11)
(11)
प्रेम बढो पुरजोर हुओ मन,मोहन के बिन चैन न आवे ।
भूख लगे नहि प्यास लगे अब,दर्श बिना कछु मोय न भावे ।
राह निहारत बीत गयो दिन,रात वही फिर याद सतावे ।
रोय रही वृषभानु लली सुन,साँवरिया कितनो तड़पावे ।
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(11)
(11)
चाँद समान लगे मुखड़ा,तन रंग लगे लगता ज्यो सोना ।
रूप लिये वह रूपवती,कर डारि गयी हमपे फिर टोना ।
स्वप्न बुने हमने बड ही,हर स्वप्न लगे तब मित्र सलोना ।
बाद नही अब टेम उसे,यह प्यार रहा बस एक खिलौना ।।
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(12)
(12)
मित्र बना वह चित्र बसा,कह भीतर सूरत एक अकेली ।
बोल रहा फिर बाद हमे,तुम तो सच में अब यार पहेली ।
कोशिश खूब करी सुलझे,पर ये उलझे बन झार झमेली ।
तू समझे कब बात बता,कछु बात करें कहवे अलबेली ।
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(13)
(13)
गागर लेकर जाय रही,जमुना तट गूजरि एक अकेली ।
देखत केशव पूछ उठे,कित है सब की सब आज सहेली ।
गूजरि देख कहे सुन लो,सब जानत माधव नाय पहेली ।
क्योकर पूछत हो हमको,तुम क्योकर बाद करो अठखेली ।
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(14)
✍🏻नवीन श्रोत्रिय “उत्कर्ष”
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4 Comments
उत्कृष्ट सृजन
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आदरणीय
हटाएंNice line respected naveen ji
जवाब देंहटाएंजी हार्दिक आभार
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