मत्तगयंद सवैया : 

  भगण×7+गुरु+गुरु  

सूरकुटी   पर  भीर भयी, कवि मित्र करें मिल कें कविताई ।
छन्दन गीतन  प्रीत झरे, उर  भीतर  बेसुधि  प्रीत  जगाई ।
भाग   बड़े   जब सूरकृपा, चल  सूरकुटी  बृज  आँगन पाई ।
देख   छटा  बृज पावन की,उर  आज  नवीन गयौ हरसाई ।
नवीन श्रोत्रिय उत्कर्ष
   श्रोत्रिय निवास बयाना

saviaya
Mattgyand savaiya : story mirror reward